नहीं चाहता राज्य चक्रवर्ती, मैं नहीं चाहता स्वर्ग।
नहीं चाहता विधि-सुरपति-पद, नहीं चाहता मैं अपवर्ग॥
नहीं चाहता योग-सिद्धि मैं, नहीं चाहता पद पाताल।
नहीं चाहता मुक्ति चतुर्विध, दुर्लभ सालोक्यादि विशाल॥
जन्म-जन्म में बनी रहे मन प्रियतम की स्मृति मधुर अबाध।
रहे छलकता श्याम-रूप-रस-सुधा-उदधि उर मध्य अगाध॥
डूबा रहूँ उसी में संतत, रहे न अन्य राग-रति-काम।
दिखता रहे सदा मुसकाता, प्रियतम-मुख सुखभरा ललाम॥