नहीं कर्मका कहीं प्रयोजन, नहीं ज्ञान का तत्त्वादेश।
नहीं भक्ति-साधन विधि-संगत, नहीं योग अष्टांग विशेष॥
नहीं मुक्ति का स्थान कहीं भी, नहीं बन्ध-भय का लवलेश।
आत्मसात् सब हुआ प्रेम-सागर में, कुछ भी बचा न शेष॥
प्रेम-उदधि वह तल गभीर में रहता शान्त, अडोल, अतोल।
पर उसमें उन्मुक्त उठा करते हैं नित्य अमित हिल्लोल॥
उठती वहीं असंख्य रूप में ऊपर उसमें विपुल तरंग।
पर उन तरुण तरंगों में भी उसकी शान्ति न होती भंग॥
अडिग, शान्त, अक्षोभ सदा गभीर सुधामय प्रेम-समुद्र।
रहता नित्य उच्छलित, नित्य तरंगित, नृत्य-निरत अक्षुद्र॥
शान्त नित्य नव-नर्तनमय वह परम मधुर रस-निधि सविशेष।
लहराता रहता अनन्त वह नित्य हमारे शुचि हृद्देश॥
उसकी विविध तरंगें ही करतीं नित नव-लीला-उन्मेष।
वही हमारा जीवन है, है वही हमारा शेषी-शेष॥
कौन निर्वचन कर सकता, जब सुर-मुनि-परमहंस असमर्थ।
भोक्ता-भोग्य-रहित विचित्र अति गति, कहना-सुनना सब व्यर्थ॥