नव नागरि हो 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


काति पाँति दसनावली, रहि तमोल रँग भीज।
बदन स्यौ ससि मै बए, मनु सौदामिनि बीज।।
गुंजा की सी छवि लई, मुक्ता अति बड़भाग।
नैननि की लई स्यामता, अधरनि कौ अनुराग।।
बेसरि के मुक्ता मनिनि, धनि नासा ब्रजनारि।
गुरु, भृगुसुत बिच भौम हो, ससि समीप ग्रह चारि।।
खूँटिला सुभग जराइ के, मुक्ता मनि छबि देत।
प्रगट भयो घनमध्य तैं मनु ससि नखत समेत।।
सुंदर सुघर कपोल हो, रहे तमोर भरि पूर।
कंचन-सपुट-द्वैपला मानहुँ भरे सिंदूर।।
चिबुक डिठौना जब दियौ, मो मन धोखै जात।
निकस्यौ अलिसिसु कंज तै, मनहुँ जानि परभात।।
जिहिं मारग बन बाटिका निकसति आनि सुभाइ।
मधुप कमलबन छाँड़ि कै, चलत संग लपटाइ।।
जहाँ जहाँ तू पग धरै, तहाँ तहाँ मन साथ।
अति अधीन पिय ह्वै रहे, तन मन दै तव हाथ।।
देखि बदन के रूप कौ, मोहन रह्यौ लुभाइ।
इकटक रह्यौ चकोर ज्यौ, दृष्टि न इत उत जाइ।।
तोहिं स्याम सौ है सखी, बढ़ी निरंतर प्रीति।
तू तन मन धन स्याम कै, तै हरि पाए जीति।।
मनमोहनि तू बस करे, अति प्रबीन नंदलाल।
'सूरदास' गावै सदा, कीरति बिसद विसाल।।2613।।

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