नरहरि-नरहरि, सुमिरन करौ4 -सूरदास

सूरसागर

सप्तम स्कन्ध

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राग बिलावल
श्री नृसिंह अवतार


ऊँच-नीच हरि गिनत न दोइ। यह जिय जानि भजौ सब कोई।
असुर होइ, भावे सुर होइ। जो हरि भजै पियारौ सब कोइ।
रामहिं राम कहौ दिन-रात। नातरु जन्म अकारथ जाता।
सो बातनि की एकै बात। सब तजि भजौ जानकीनाथ।
सब चेटुअनि मन ऐसी आई। रहै सबै हरि पद चित लाई।
हरि हरि नाम सदा उच्चारै। विद्या और न मन मै धारै।
तब संडामर्का संकाइ। कह्मों असुरपति सौं यौं जाइ।
तब सुत को पढाइ हम हारे। आपु पढै नहि, और बिगारै।
राम नाम नित रटिबो करै। राजनीति नहि मन मै घरै।
तातैं कही तुम्है हम आइ। करिबो होइ सो करौ उपाइ।
हरिनकसिप तब सुतहि बुलइ। कछुक प्रीति, कछु डर दिखराइ।
बहुरौ गोद माहिं बैठार। कह्मो , पढे कहहा विद्या -सार।
‘सार बेद चारौ कौ जोइ। छेऊ सास्त्र-सार पुनि सोइ?
सर्व पुरान माहिं जो सार । राम नाम मैं पढ़यो बिचार।
कहयौ, याहि ले जाइ उठाइ। सुमिरत को रिपु को चित लाइ।
मेरी और न कछू निहारौ। याकौं पावक भीतर डारौ।
जो ऐसी करतहुँ नहिं मरै। डारि देहु गज मैमत तरैं।
पर्वत सों इहि देहु गिराइ। मरै जौन बिधि मारौ जाइ।
नृप आज्ञा लयो कुँवर उठाइ। कुँवर रहयौ हरि पद चितलाइ।
असुर चले तब कुँवर लिवाइ। हरि जू ताकी करी सहाइ।
असुरनि तै गिराइ। राखि लियौ तहँ त्रिभुवन राइ।
पुनि गज मैमत आगैं डारयौ। राम नाम तब कुँवर उचारयौ।
गज दोउ दंत टूट घर परे। देखि असुर यह अचरज डरे।
बहुरौ दीन्हें नाग ढुकाइ। जिनकी ज्वाला गिरि जरि जाइ।
हरि जू तहँ हूँ करी सहाइ। नाग रहे सिर नीचैं नाइ।
पुनि पावक मैं दियौ गिराइ। हरि जू ताकी करी सहाइ।
करै उपाइ सो बिरथा जाइ। तब सब असुर रहें खिसिआइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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