तातैं द्वितिया और न कोइ। ताके भजै सदा सुख होइ।
दुर्लभ जन्म सुलभ ही पाई। हरि न भजै सो नरकहिं जाई।
यह जिय जानि बिषय परिहरौ। रामहि-राम सदा उच्चरौ।
सत सँवम मानुष की आइ। आधी तौ सोवत ही जाइ।
कछु बालापन ही मैं बीतै। कछु बिरधापन माहिं बितीतै।
कछु नृप-सेवा करत बिहाइ। कछु इक विषय-भोग मै जाइ।
ऐसौ हीं जो जनम सिराइ। बिनु हरि-भजन नरक महँ जाइ।
बालपनौ गए ज्वानी आवै। बृद्ध भए मूरख पछितावै।
तीनौंपन ऐसैंही जाइ। तातैं अबहि भजौ जदुराइ।
बिषै-भोग स बतन मै होइ। बिनु नर-जन्म भक्ति नहिं होइ।
जौ न करै तौ पसु सग होइ। तातैं भक्ति करौ सब कोइ।
जब लगि काल न पहुँचै आइ। हरि की भक्ति करौ चित लाइ।
हरि व्यापक है सब संसार। ताहि भजौ अब सोचि-विचार।
सिसु, किसोर, बिरधो तनु होइ। सदा एकरस आतम सोइ।
ऐसौ जानि मोह कौ त्यागों। हरि चरनारबिंद अनुरागी।
माटी मै ज्यौ कंचन परै। त्यौही आतम तन संचरै।
कंचन लै ज्यौ माटी तजै। त्यों तन-मोह छाँडि़ हरि भजै।
नर-सेवा तै जो सुख होइ। छनभंगुर थिर रहै न सोइ।
हरि की भक्ति करौ चित लाइ। होइ परम सुख, कबहुँ न जाइ।