नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. उर्वशी-ऊखल-बन्धन
मैंने भगवती को मस्तक झुकाया। बहुत यज्ञ देखे हैं मैंने। कोई यज्ञ नहीं जो मेरा देखा न हो। सुरों को यद्यपि ऐन्द्रियक भोग प्राप्त नहीं होते, मनुष्यों के मनोराज्य से किञ्चिद् भिन्न हैं देवताओं के भोग देह के भोग; किंतु शची की अपेक्षा कहीं अधिक मैं विलासी सुरपति को वश में रखना जानती हूँ। मैं भले देव-सभा में शची के समान इन्द्र के साथ सिंहासन पर न बैठ सकूँ; किंतु शक्र किसी यज्ञ में साथ ले जाने का मेरा आग्रह टालने की शक्ति नहीं रखते। यज्ञ-स्थल में जाकर मुझे क्या देखना है। मैं यहाँ दधि-मन्थन करती अपनी इन पितामही के पद दर्शन तो कर सकती हूँ। ब्रजेश्वरी-सर्वेश्वरी भी जिन्हें माता मानकर मस्तक झुकावें, उनका यह सौन्दर्य धन्य है! कैशों में लगी मल्लिका की माला के पुष्प मध्य में एक दो करके स्खलित हो रहे हैं। वेणी हिल रही है और शिथिल पड़ गयी है। स्वेद बिन्दु आ गये हैं भाल को भूषित करते सिन्दूर बिन्दु के इधर-उधर। नासिका पर झल-मलाते ये बिन्दु! कपोलों पर कर्ण में पड़े मणि कुण्डल चञ्चल हो रहे हैं। चञ्चल हो रहे हैं कञ्चुकी से कसे पयोधर और उनसे झरते वात्सल्य से कञ्चु की वस्त्र आर्द हो रहा है। दोनों कर चल रहे हैं रज्जु खींचते। कंकणों की ध्वनि में स्वर मिलाकर ये अपने पुत्र के मञ्जुचरित गा रही हैं। यह ललित काव्य! यह स्वर सौष्ठव! मैं स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा भी यह स्वर-संगीत काव्य कभी कल्पना में आवेगा- नहीं सोच सकी। 'नहीं री! मैं उनकी चरण-चर्चिका मात्र हूँ।' मैंने भगवती शारदा की ओर सोपालम्भ देखा। मैं कहना चाहती थी- 'आप यह स्वर, संगीत, काव्य दे सकती हैं और इस पुत्री को अब तक आपने वञ्चित रखा?' लेकिन उन्होंने स्वयं कहा- 'मैं भी इनकी पद रज की ही कामना करती हूँ। इनके प्रभाव को जानना मेरे भी वश में नहीं। तू केवल दर्शन कर!' |
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