नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. शारदा-उपालम्भ
सायंकाल नन्दभवन आकर उन्होंने साग्रह बैठाया अंक में। अपने हाथ से घर से लाया नवनीत खिलाती रहीं और इनके पदों को करों में लेकर टटोलती-देखती रहीं। इतने ध्यान से देखती रहीं कि मैया ने पूछ लिया- 'जीजी! क्या है?' 'इसके पद कितने कोमल हैं!' फिर नेत्र भर आये- 'यशोदा! तू इसे धूप में तो घर से मत निकलने दिया कर! मेरे भवन दोपहर में आया था और फिर भाग आया!' 'मैया! एक गोपी है न, वह तमाल है जिसके आँगन में।' कहीं से भागे आये हैं और मैया की गोद में बैठकर उसकी ओर मुख करके कह रहे हैं- 'वह मुझे देखती है तो बलपूर्वक पकड़ ले जाती है। मुझसे गोबर उठवाती है। घर के काम कराती है और फिर मेरे मुख में, हाथ में दही या माखन लगाकर, मुझे धमकाकर भगा देती है!' दौड़े आये हैं। कमलमुख आतप में दौड़ने से अरुण हो उठा है। स्वेद कण झलमला आये हैं भालपर। अधर नवनीत से उज्ज्वल हैं। करों में लगा है नवनीत। अलकों पर, कन्धे पर भी कुछ उज्ज्वल रेखाएँ हैं। 'यही है-यही है मैया!' एक को आती देखकर पूरा हाथ फैलाकर कहते हैं- 'मैं कहता था न कि यह उलाहना देने आती ही होगी। तू आज इसे मार लगा!' आयी तो वह उलाहना देने ही थी; किंतु अब ठिठककर खड़ी हो गयी है हास्य दबाकर। आते ही ब्रजेश्वरी हँसती उठ पड़ी हैं और मथानी उठा ली है उन्होंने परिहास में- 'क्यों री! तू मरे लाल को बलात अपने घर पकड़ ले जाती है? इससे घर के काम कराती है और इसके मुख-कर में माखन लगाकर उलाहना देने आयी है!' 'तू दादा से पूछ ले। यह प्रतिदिन मुझे तंग करती है!' अब ये उलटे उसे डाँटने लगे हैं। 'प्रतिदिन का यह उत्पात कहाँ तक सहा जाए?' वह भी कठोर बन गयी हैं- 'दूध, दधि, नवनीत की नित्य की हानि-गोरस ही तो गोप की आजीविका है और तुम्हारा लाल प्रतिदिन सब भाण्ड फोड़ आता है। तुमसे कहने आवें तो उलटे दोष लगता है। अब स्वामी से कहना होगा- हमारा क्या, गोकुल त्यागकर कहीं अन्यत्र गायों को लेकर बसेंगे! इस हानि और लाञ्छन से तो छुटकारा होगा!' |
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