नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. शारदा-उपालम्भ
ताई बड़ी हैं। वे इन बालकों को उद्धत होता नहीं देख सकतीं। वे नन्दभवन चल पड़ीं। अब शिशुओं को लगा कि उचित नहीं हुआ। सब एक दूसरे का मुख देखने लगे। सखा सहमे रहे, यह कहाँ सह्य है श्रीकृष्णचन्द्र को। कह दिया हँसकर- 'तुम सब मेरे पीछे आना। मैं मैया के पास जाता हूँ। मैया ताई को मारेगी।' इनको अब कौन कहे कि मैया को ताई ही डाँट सकती हैं। ये तो भागे और आकर मैया की गोद में बैठ गये। मैया ने जेठानी को देखते ही इन्हें गोद से उतारा। प्रणाम किया उन्हें। वे बोलीं- 'यशोदा! तुम अपने इस लाल के गुण भी जानती हो? कैसा साधु बना तुमसे सटा खड़ा है।' 'क्या किया है इसने?' मैया आश्चर्च से अपने नीलमणि का मुख देखती हैं- 'अभी तो यह यहीं खेल रहा था सखाओं के साथ!' मैया को लगता ही नहीं कि उसका यह अबोध लाल ऐसा भी कुछ कर सकता है, जिससे कोई उलाहना देने आवे। 'तुम चलकर मेरा गृह देख आओ कि इसने वहाँ क्या-क्या किया है!' ताई को अपना यह क्रोधाभिनय रोकना कठिन हो रहा है। यह नटखट अभी उन्हें मटककर अँगूठा दिखाकर आया और यहाँ इतना सीधा बना खड़ा है! भीतर हँसी उमड़ रही है। 'मैं देखकर क्या करूँगी?' मैया-जैसी सीधी महिला मिल नहीं सकती। 'यह आपका ही तो है। अपने ताऊजी के घर में इसने कुछ धूम की तो आप डाँट देतीं।' 'मैं इसे डाँटती!' अब प्रभावती हँस पड़ीं- 'यह तो मेरे डाँटने पर मुँह चिढ़ाता है, हँसता है, अँगूठा दिखाता है।' बहुतों ने देखा और जिन्होंने नहीं देखा, सुन लिया दूसरी से प्रभावतीजी के उलाहने की बात। सबको लगा कि 'नन्दनन्दन को अधिक देर तक देखने का यह अच्छा उपाय है। मैया के अंक में यह सहमा सम्मुख बैठा रहेगा।' अब उपालम्भों का अनवरत क्रम चल पड़ा है। एक कहती है- 'अपनी मित्र-मण्डली को लेकर गया और मेरा सब माखन खा गया। दूध-दधि के भाण्ड फोड़ दिये। मना करने पर चिढ़ाता उलटे है।' 'बहिन, तेरे मुँख में माखन-मिश्री!' मैया तो प्रसन्न हो गयी- 'तेरे गृह में इसने कुछ खाया तो सही। मेरे तो मनुहार करने पर भी नेक माखन मुख में डालता है। दूध-दधि, माखन और भाण्ड भी तू जितना चाहे यहाँ से ले जा। मैं तेरे भवन भेज देती हूँ। |
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