नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. मल्लिका मौसी-सर्वप्रिय
इसके भाल-कपोलपर बढ़ती जा रही थीं मेरी लगायी गोबर की बिन्दियाँ। इसकी वह शोभा- मैं टोकरी कम भरती थी। भरने में देर लगाती थी। यह समीप रहेगा तब-तक जब-तक मैं सब गोबर न उठा लूँ। 'तू आलसी है! भागकर जा!' यह हँसता था। कूदता, किलकता था और मैं इसके मुख-पर गोबर की बिन्दियाँ देख-देखकर हँस रही थी। मुझे इसकी मनुहार करके इसे रोके रहना था। विधाता ने क्यों गोबर की राशि अनन्त नहीं बनायी? यह ऐसे ही टोकरी उठवाता रहता और मैं पूरे जीवन उठाती रहती। मुझे लगा कि गोबर बहुत शीघ्र समाप्त हो गया। मैंने हाथ भी नहीं धोये थे कि यह माखन के लिए मचलने लगा। एक टोकरी उठवाने के बदले इसके भार जितना माखन भी दे दूँ तो कम है: किंतु बिन्दियाँ बहुत हैं इसके भाल-कपोलों-पर। पूरा मुख और भाल मेरी लगायी गोबर की बिन्दियों से भर गया है। यह सुकुमार बहुत कम नवनीत पचा सकता है, यह सोचना था मुझे। 'इतनी बड़ी टोकरी उठवायी और यह एक बूँद माखन?' दोनों हाथ फैलाकर टोकरी का आकार बताया इसने और अपनी हथेली-पर पड़े माखन को देखकर झल्लाया। सचमुच एक बूँद जितना ही माखन दिया था मैंने। 'टोकरी तो गोबर से भरी थी।' मैंने हँसकर कहा- 'तू ले तो उतना गोबर दे दूँगी। नवनीत तो इतना ही मिलेगा।' बहुत खीझा। बहुत झगड़ता रहा और मैं मन में हँसती रही। एक बिंदी मिटाने के बदले एक बूँद माखन भी मैं नहीं दे सकती थी। इससे इतना भी तो नहीं पचेगा। मैंने एक बूँद माखन देकर कितनी बिन्दियाँ मिटा दीं, यह भोला नीलसुन्दर इसे कैसे जान सकता था। यह चपल तो खीझता, माखन खाता रहा और अन्त में भाग गया; किन्तु मुझे रात्रिभर नींद नहीं आयी। मुझे बहुत दु:ख था कि मैंने नीलमणि को बहुत अधिक खिझा दिया है। अब वह कदाचित मेरे यहाँ न आवे। सोच लिया था कि आज आवेगा तो नवनीत भरा पात्र सम्मुख धर दूँगी आते ही- 'लाल! तेरे मन में आवे उतना खाले। प्रतिदिन आ जाया कर और जितना जी चाहे माखन खा लिया कर!' |
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