नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. मल्लिका मौसी-सर्वप्रिय
सब तो ऐसा ही कहती हैं। सबके सब काम करता है और सबके घर पहुँचा रहता है। मेरे मन में भी आ गयी कि इसे कोई काम बताकर देखना है कि कैसे करता है। कैसे मनुहार कराता है। क्या माँगता है और न देने पर खीझता कितना है। मैं गोष्ठ में गोबर उठाने में लगी थी। सब गोबर समेट लिया था मैंने। टोकरी भरी और आ गया। मैंने कहा- 'नीलमणि! मेरी टोकरी तो उठवा दे!' 'तू अपने आप उठा! मैं क्यों उठवा दूँ? मैं नहीं उठवाता।' यह मटकने लगा, अँगूठा दिखाने लगा। ताली बजाकर हँसने लगा- 'उठा अपने आप!' कितना भोला है! यह समझता था कि मैं अकेली तो टोकरी उठा ही नहीं सकती। यह सुकुमार टोकरी उठवाने योग्य है? इसके नन्हें हाथ मेरी कटि तक भी तो नहीं पहुँचते। लेकिन यह कैसा मटकता है! कितना प्रसन्न हँसता है। मैंने मनुहार की- 'उठवा दे लाल! जितनी टोकरी उठावायेगा, उतने लौंदे माखन दूँगी।' 'उतने लौंदे माखन?' सिर झुकाकर सोचने लगा। वहाँ और कोई नहीं था, इससे समझता होगा कि मैं किसी से सहायता नहीं पा सकती। 'तूने कितनी टोकरी उठवायीं, कैसे पता लगेगा!' गम्भीर होकर पूछा इसने। इतना समझता है कि स्वयं गिन नहीं सकता और मैं दूसरी गोपियों के समान इसे ठग ले सकती हूँ। 'मैं गिनती जाउँगी।' मैं और क्या कहती। 'तू बड़ी सच्ची हैं!' मटकने लग गया। 'मैं इस भित्ति पर एक टोकरी उठवायेगा तो गोबर की एक टिक्की लगा दूँगी।' मैंने समझाया- 'पीछे एक-एक टिक्की गिनकर नवनीत दूँगी। 'तू टिक्कियाँ ठीक नहीं गिने तो? क्या पता कम टिक्की लगा देगी!' फिर इसने आपत्ति की। 'अच्छा, मैं तेरे कपोलपर टिक्की लगाउँगी।' मैंने हँसकर कहा। मुझे अपनी ही यह योजना बहुत विचित्र लगी- 'एक टोकरी उठवायेगा तो एक टिक्की लगा दूँगी। पीछे एक नवनीत खण्ड देकर एक टिक्की मिटाती जाउँगी।' 'तू टोकरी उठवा और मुझे नवनीत दे!' बहुत सरल ढंग सोचा इसने।' 'मेरे हाथ देख!' मैंने दोनों हाथ दिखाये- 'मैं गोबर भरूँगी इनसे। तू गोबर लगा नवनीत खायेगा?' 'तू खा गोबर लगा नवनीत!' झल्लाया यह। 'लाल! इसी-से कहती हूँ कि टिक्की लगवाले। टोकरी उठवाकर पीछे हाथ धोकर मैं नवनीत दूँगी।' |
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