नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. मल्लिका मौसी-सर्वप्रिय
जीजी ने कहा था- 'धाय क्यों? यह तुझे माँ कहता है मल्लिका! यह तो तेरा है ही।' ये जीजी भी मुझे मल्लिका कहने लगी हैं। मेरे पितृगृह के नाम को यहाँ कोई नहीं लेता। मैं यहाँ आई तो मेरी श्वेत अंगकान्ति को देखकर पहिले ही दिन व्रजेश्वर के बड़े भाई की पत्नी ने कहा-'यह तो मल्लिका है। परमात्मा इसके सदगुणों के सौरभ से पूरे गोकुल को पूर्ण करें!' वे पूज्या हैं, पतिव्रता हैं, परम पुनीता हैं। उनका आशीर्वाद गोकुल को कितना मिला, पता नहीं; किंतु मुझे तो मिल गया। मेरा नाम तब से मल्लिका हो गया और गोकुल का युवराज मुझे माँ कहता है। वह पुत्र होने से पूर्व ही मुझे पुत्रवती बना चुका। वह मेरा पयपान करने लगा- अब मुझे और पुत्र क्यों चाहिये? मैं अपने घर में एकाकिनी हूँ। कुछ क्षण विलम्ब से जीजी के समीप पहुँचती थी तो वे मुझे उलाहना देती थीं- 'तू इतनी देर क्या करती रही?' उनको क्या उत्तर दूँ! मैं तो उलघ जाती थी उनके-अरे, अपने कन्हाई से। यह खीझता था और अंक में आकर मेरी नाक, कपोल नोचता था। कितनी उत्कण्ठा थी कि यह मेरे गृह में आता। मैं इसे अपने आँगन में नवनीत खिला पाती और यह चलने लगा तो सबसे पहिले मेरे यहाँ पहुँचा। उस दिन का उल्लास क्या वर्णन कर पाऊँगी; किंतु अब तो यह प्रतिदिन आने लगा है। मैं व्रजपति के सदन प्रात: इसीलिए नहीं जाती कि यह आवेगा मेरे गृह में। यह आवे और द्वार बन्द मिले, ऐसा तो नहीं होना चाहिए। यह सुन्दर श्याम बहुत भोला है। शिशु ही तो है अभी। सभी चाहती हैं कि यह उनके समीप ही रहे अधिक और इसे उलझा लेती हैं। उस दिन माधवी कह रही थी- 'मोहन! तू नाचता बहुत सुन्दर है। तनिक नाच तो सही।' यह ऐसे ही क्यों नाचे; किंतु माधवी ने कहा- 'तू नाच दिखा दे तो तुझे माखन दूँगी।' माधवी ने मुझसे पीछे बतलाया- 'यह नीलमणि इतना भोला है कि इसे यह पता ही नहीं कि इसे क्या चाहिये। कुछ देने को कह दो तो नाचने लगेगा। गोपियाँ तो इसे दधि, छाछ, मयूरपिच्छ ही नहीं, दूर्वा तक देने को कहकर नचा लेती हैं।' |
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