नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वृषभानु बाबा-सगाई
'जीजी! इस सम्बन्ध के लिए तो आँचल फैलाकर मैं श्रीनारायण से वरदान माँगती हूँ।' व्रजेश्वरी ने कहा था। यह मैंने सुना तो मुझे इतनी प्रसन्नता हुई कि उसका वर्णन नहीं। बात इतनी ही नहीं रही। मैं विदा होने लगा तो नन्दरायजी ने मुझे उपहारों से लाद दिया। समझ गया कि यह रोहिणी रानी की प्रबन्ध-पटुता है। उनका संदेश मिल गया-'आपसे तो हम सदा लेंगे ही। यह सब आपको केवल हमारी लाली और उसके सेवक-सेविकाओं तक पहुँचा देने का कष्ट करना है।' अब शेष रह गया सगाई में? महर्षि शाण्डिल्य ने मुहूर्त निश्चय कर दिया था। मैं आज इस मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को गोकुल में नन्हें नीलमणि का तिलक करके लौटा हूँ। महर्षि ने गोष्ठ के एकान्त में, बिना किसी समारोह के केवल सामान्य पूजन करा-के सम्पन्न किया यह संस्कार। पीत झगुलिया और कछनी में सुशोभित मयूर-मुकुटी नीलसुन्दर! उसके भाल पर लगाया मेरे करों का कुंकुम-तिलक और उस पर चिपके अक्षत के दो दाने- यह छवि तो अब जीवन-भर भूलने की नहीं। सामान्य स्थिति में यह संस्कार होता- केवल कुल-पुरोहित के साथ कुमार श्रीदामा जाता- किंतु मेरा मन मानता गये बिना? आज वृहत्सानुपुर के समारोह से स्वर्ग भी स्पर्धा करता- परन्तु यह सब कैसे होता? कंस क्रूर है और .......। केवल अर्धांगिनी जानती हैं कि आज जीवन का सबसे मंगल अवसर है। उनकी गोद में बैठी उनकी तनया की गोद गोकुल से आये उपहारों से भर दी गयी; पर वह तो अभी अबोध शिशु है। उसे क्या पता कि यह सब क्या हो रहा है। अवश्य ही आज बहुत गम्भीर रही वह; पर वह तो सदा से ऐसी है। मेरी पुत्री में चपलता तो कभी आयी ही नहीं। |
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