नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. महर्षि शाण्डिल्य-कुल परिचय
मुझे देखते ही गोपों ने हाथों का काम छोड़ा और दौड़ पड़े। गोपनायक पर्जन्य ने सम्मुख आकर भूमि में लेटकर प्रणिपात किया। ले जाकर आसन दिया आदरपूर्वक और सविधि इस प्रकार पूजन में लग गये कि मैं स्वयं अपने आराध्य की इतनी श्रद्धा, इतनी सावधानी, इतनी विधि से अर्चना यदा-कदा ही कर पाता हूँ। प्रत्येक गोप भाग आया था वन में-से भी यह सुनते ही कि गोकुल में कोई ऋषि आये हैं। उन्होंने एक दूसरे को हाँक लगाकर बुला लिया। गोबर-सने हाथ शीघ्रता में धोये गये थे। वृद्धा,युवती और बालिकाएँ-सब गोपियाँ सिमट आयी थीं। शिशुओं तक को मेरे चरणों में रखा उन्होंने। सबको मेरे पैरों पर मस्तक रखना था और सब कुछ-न-कुछ उपहार लेकर आये थे। उसी दिन शाण्डिल्य को इतनी गायें और वृषभ मिले कि उनकी गणना करना कठिन था। इतने उपहार कि उससे कोर्इ राजप्रसाद भी भर जाय। कितने वस्त्र, कम्बल, मृगचर्म तथा अन्न, स्वर्ण की राशि- मैं केवल चकित देखता रह गया। मुझे सबका प्रणिपात स्वीकार करने में ही पर्याप्त अधिक समय लगा। 'आप सबको प्रसाद-वितरण करा दें!' मैंने गोपराज पर्जन्य से साग्रह कहा- 'मैं भला पशुओं का, धन का, अन्न या वस्त्र का क्या करुँगा।' 'महर्षि कण्व अब इतने अधिक गोपों का पौरोहित्य करने में बहुत कठिनाई का अनुभव करते हैं।' सभी स्त्री-पुरुष हाथ जोड़े खड़े थे। सबके नेत्रों से जो प्रार्थना व्यक्त हो रही थी, गोपनायक के स्वर में वह बोल रही थी- मैं पिता के आदेश से यहाँ आया तो हमारे मथुरा के भी कुल-पुरोहित ने अपनी विवशता व्यक्त कर दी। वे मथुरा से यहाँ कैसे आ सकते हैं। मैं तब से ही श्रीहरि से नित्य प्रार्थना करता हूँ कि वे हमें पूजा के लिए कोई अपने स्नेह-भाजन वेदज्ञ ब्राह्मण प्रदान करें। अब आप स्वयं यहाँ पधारे हैं। हम वनवासी पशु-पालकों का पौरोहित्य आप स्वीकार करें, यह प्रार्थना करना बहुत धृष्टता है; किंतु यदि हमें यह सौभाग्य प्राप्त हो जाय- आपके इन सभी पशुओं की सेवा तो हम करेंगे ही, हम सब सदा आपके विनीत दास रहेंगे।' |
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