नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. बुआ सुनन्दा-मृद्-भक्षण
'भाभी! तुम कनूँ का खुला मुख देखकर इतना डर क्यों गयीं थी?' मैंने पीछे पूछा। 'सुनन्दा! तुम सुनकर हँसोगी।' भाभी ने कहा- 'मुझे कोई रोग हो गया है। जब मैं इसका खुला मुख देखती हूँ, मुझे अद्भुत स्वप्न दीखने लगता है। यह जब शिशु था तब इसके जम्हाई लेने पर भी ऐसा ही हुआ था। आज भी वैसा ही कुछ हुआ। अब मैंने अपने कान पकड़े, इसके खुले मुख में नहीं झाँकूँगी।' भाभी ने बतलाया श्याम के छोटे-से, उज्ज्वल नन्हीं दन्तावलियों से सलोने लाल मुख में सारी सृष्टि देखी इन्होंने। जीव, काल, प्रारब्ध और उसके सञ्चालक, कारण तत्त्व, प्रकृति, महत्, अहंकार, मन, इन्द्रियाँ, त्रिगुण- पता नहीं इनके नाम कैसे भाभी को स्मरण रहे। सुना तो मैंने मुनियों से यह था कि ये सब आकारहीन हैं। भाभी कहती हैं कि इनको भी इनके नाम कोई बतला रहा था। इनके देवता ही दीखे इन्हें। वायु, अग्नि, आकाश, वरुण, इन्द्रादि देवता, सूर्य-चन्द्र, तारक-मण्डल; पता नहीं क्या-क्या कहती हैं ये। महासागर, महाद्वीप, पर्वत, कानन, नदियाँ और नगर दीखे। पृथ्वी में मथुरा-मण्डल, कालिन्दी और उसके तट पर यह गोकुल भी दीखा। गोकुल दीखा तो इसमें गोप, गोपियाँ, गायें, गोष्ठ दीखने ही थे और ये सब दीखे तो व्रजराज भैया भी दीखे। भाभी ने अपने आपको भी देखा। स्वप्न में तो मैं भी अपने आपको देखती हूँ, कई बार यह अपना नीलमणि भी मुझे दीखता है स्वप्न में; किंतु भाभी तो जागते-जागते स्वप्न देखने लगी थीं। भाभी कहती हैं कि वे जाग रही थीं और जागते हुए कन्हाई के मुख में यह सब देख रही थीं। भला यह सम्भव कैसे है? नन्हें-से श्याम का नन्हा-सा तो मुख है। उसमें इतना झमेला कोई कैसे देख लेगा। मैंने भगवती पूर्णमासी से पूछा था। वे तनिक हँसकर कहने लगीं- 'जो सर्वात्मा, सर्वस्वरूप है, उसमें सब-कुछ दीख सकता है।' |
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