नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. बुआ सुनन्दा-मृद-भक्षण
भाभी अपने भागते जाते लाल को देख-देखकर हँस रही हैं- 'कहता है- वहाँ बाहर जायगी तो बाबा, दोनों ताऊ, चाचा सब तुझे मारेंगे। अभी नहीं जा। सबको मैं ले आऊँगा तब यहीं उन्हें डाँटना।' मैया को भी धमकाना सीख गया यह। मैया इतने मोटे लकुट से दाऊ को, भद्र को या किसी भी सखा को मारे, यह मेरा यह सुघर श्याम सहन नहीं कर सकता। अब भाभी पुकारती हैं तो पुकारें, यह तो खेलने चला गया। बालक एक साथ खेलेंगे और परस्पर झगड़ेंगे भी। ये न झगड़े बिना रह सकते, न फिर मिलकर खेले बिना रहेंगे। इनके विवाद में बड़ों का पड़ना भी मूर्खता है; किंतु अनेक बार हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो जाता है। अब उस दिन दाऊ, भद्र, विशाल कई बालक भागते एक साथ आ गये आँगन में। दूर से ही पुकारने लगे- 'मैया! कनूँ मिट्टी खाता है।' 'वह धूलि का ढेर करके उस पर बैठ गया है। इतनी सारी धूलि!' भद्र दोनों हाथ फैलाकर बतलाता है- 'मैंने मना किया था। कहा था कि मैया कहती है कि मिट्टी खाने से पेट में कीड़े पड़ते हैं- लेकिन यह मानता नहीं है।' भद्र ने अवश्य मना किया होगा। सब श्याम से स्नेह करते हैं। लेकिन वह हठी तो है ही। पता नहीं मिट्टी खाने की क्यों सूझी उसे। बुरी बात है। भद्र कहता है- 'मेरे मना करने पर कहता है- मैं खाता हूँ तेरा क्या बिगड़ता है। मैं खाऊँगा-मैं तो यह सारी मिट्टी खाऊँगा!' एक चिटकी मिट्टी उसे मुख में डालते भद्र ने देखी है। अपनी हठ में और खा सकता। उसे तुरन्त रोका जाना चाहिये; किंतु भाभी ने तो छड़ी उठा ली है। श्यामसुन्दर छड़ी से मारने तो क्या धमकाने योग्य भी नहीं है। मैं छड़ी छीन लेना चाहती थी। 'नहीं सुनन्दा!' भाभी ने जीवन में पहिली बार मुझे कड़ी दृष्टि से देखा- 'तू यहीं रह देखती नहीं कि इसका अभ्यास बिगड़ रहा है। कुछ कठोर होकर डाँटे बिना यह नहीं मानेगा।' मैं वहीं आँगन में कैसे रह जाती? आज भाभी मुझे उस छड़ी से पीट लेती तो भी मैं रुक नहीं सकती थी। मैं उनके पीछे ही चली-तनिक इतनी दूर कि मुझे देखकर डाँटने न लगें। |
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