नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. महर्षि शाण्डिल्य-कुल परिचय
'भगवन! मथुरा की समता नहीं है त्रिभुवन में।' परीक्षित ने गद्गद स्वर में कहा- 'यह सृष्टि के भाल का सौभाग्य बिन्दु है।' 'तुम सत्य कहते हो सम्राट!' महर्षि शाण्डिल्य भी भावविभोर थे- 'किंतु तुम जब व्रजधरा की वास्तविकता समझ पाओगे तो जान सकोगे कि मथुरा श्रीहरि का श्रीविग्रह है और उसमें वृन्दावन उनका हृदय है। मैं गोकुल के पार्श्व में पहुँच गया था। वहाँ के तृण, तरु, लताएँ, पक्षी-पशु पिपीलिका तक-जहाँ दृष्टि पड़ती थी, पद वहीं रुक जाते थे। मेरी अवस्था ऐसी थी, जैसे कोई किसी दुर्गन्धित स्थान का निवासी सहसा पुष्पित सुर-कानन में पहुँच जाय और एक-एक पल की सुरभि उसे अपने समीप ही खड़े रहने का आग्रह करती प्रतीत हो। मुझे गोकुल में सामान्य बनने में समय लगा। मैंने कई दिन केवल फलाहार किया और यमुना किनारे ध्यानस्थ बैठा रहा। इस दिव्य धरा के किसी भी मानव-निवासी तक पहुँचने के लिए आवश्यक था कि मेरा चित्त इस दिव्यता को सहन करके सामान्य व्यवहार में सक्षम हो जाय। मैंने जब अपने को किसी प्रकार व्यवहार के उपयुक्त कर बहिर्मुख कर लिया, गोकुल के गोपावास में पहुँचा। गोप जाति में अनेक सहज स्वाभाविक सदगुण हैं, यह अब मैं जानता हूँ। यह अत्यन्त श्रद्धालु, शूर, सहानुभूतिपूर्ण तथा उदार जाति है। स्नेह तथा सुदृढ़ संगठन इनके रक्त में ही बसता है। गो सेवा ने इनका अन्तर-बाह्य परम पवित्र कर रखा है और इस सेवा के श्रम ने सुदृढ़, शरीर, सबल स्वास्थ्य, सहज-जीवन का इन्हें प्रसाद प्रदान किया है। |
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