नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची-चिर-चपल
व्रजेश्वरी जीजी ने भद्र के तीन महीने का होते ही कहा- 'अतुला! तू इसे यहीं छोड़ दे। यह रहता है तो दाऊ इसके समीप प्रसन्न रहता है। यह भी इसको देखकर ही किलकता है।' 'जीजी! यह तो है ही तुम्हारा!' मैंने उस दिन उल्लसित होकर कहा था- 'मैं तो तुम्हारे इस पुत्र की धाय हूँ। तनिक और बड़ा हो जाय तो इसे यहाँ मुझे छोड़ना ही पड़ेगा। यह बात इस सीमा तक सच हो जायगी, इसका पता तब मुझे भी नहीं था। भद्र तो भूल ही गया कि गोकुल में उसका कोई दूसरा घर भी है। वह मँझले जेठ व्रजराज के साथ रात्रि में सोने लगा है। वे कहते हैं- 'छोटी! यह मेरा पुत्र है। यह समीप नहीं होता तो मुझे निद्रा ही नहीं आती। यह मेरा दूसरा दाऊ।' भद्र- सचमुच दाऊ जैसा ही तो है। दाऊ स्वर्ण गौर है और भद्र गोधूम वर्ण- लेकिन दोनों के नेत्र, भाल, बाहु जैसे एक साँचे में ढले हैं। दाऊ कितना मानता है अपने इस छोटे भाई को। भद्र भी दाऊ के समान रोहिणी जीजी को 'माँ' कहता है और व्रजेश्वरी 'मैया' हैं; किंतु मुझे तो अपने सखाओं के समान चाची कहते हैं मेरे दोनों पुत्र। भद्र ने स्वयं नन्दभवन को अपना लिया था और तोक को नीलमणि ने ले लिया। यह तोक कृष्ण-छोटा कृष्ण कहलाता भी तो इसीलिए है कि नीलमणि की दूसरी मूर्ति है। औरों की बात मैं क्यों करूँ, नीलमणि समीप न बैठा हो तो तोक को देखकर मैं इसे अनेक बार 'कनूँ' कह बैठती हूँ। इतना ही तो अन्तर है कि इसके वक्ष पर तनिक वाम भाग में वह स्वर्णिम रोमों की भ्रमरी नहीं है। लेकिन उस पर दृष्टि जाय तब कहीं पहिचान हो। तोक तो 'नीलमणि! कनूँ' आदि कहकर पुकारे जाने पर पुकारने वाली का मुख देखकर हँसने का अभ्यासी हो गया है। |
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