नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. महर्षि दुर्वासा–तृणावर्त त्राण
महावन में तृणावर्त जिधर से आया है, तरुओं-लताओं को नि:शेष करता आया है। भारी वृक्ष भी जड़-सहित उखड़कर दूर जा गिरे हैं; किंतु गोकुल में पहुँचकर बहुत कुछ वेग शिथिल हो गया है। गोपों के गृहों में कोई ध्वन्स नहीं; क्योंकि तृणावर्त को अपनी शक्ति नन्द-प्रांगण में केन्द्रित करनी है। नन्दनन्दन आँगन में अकेले बैठे हैं। तृणावर्त को लगता है- यही अवसर है। अभी आकर इसकी माता इसे उठाकर कक्ष में भाग जायगी। वह उठा लेता है और ऊपर-सीधे ऊपर लिये चला जाता है। मुझे अपने समीप इनके दर्शन की सुविधा दी इस असुर ने- इसका कल्याण हो! मैं असुर मन को देख सकता हूँ। वह सोचता है- 'पूतना और उत्कच दोनों मुझसे सशक्त थे। वे इस बालक को मारने गये तो मारे गये। मैं मारूँगा नहीं। महाराज कंस को ले जाकर दे देता हूँ। आगे वे जानें और उनका यह शत्रु जाने। मथुरा है ही कितनी दूर।' लेकिन ये परम स्वतन्त्र क्या किसी के ले जाये कहीं जाते हैं। इन्हें केवल ऊपर उछलना था- अत: जहाँ तक सीधे ऊपर लाये गये, चले आये। अब इधर-उधर क्यों? इन्हें तो कहीं जाना नहीं है। ऊपर उछलने में माता के कण्ठ से लिपट जाने का तो अभी-अभी अभ्यास किया है। अब तृणावर्त के कण्ठ को पकड़ लिया है दोनों भुजाओं में लपेटकर और लिपट गये हैं उससे। अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड इनके भीतर- ये लीलापूर्वक अपने स्वरूप को लघु बनाये रहें, भारहीन किये रहें, यह इन सर्वसमर्थ की स्वेच्छा; किंतु इन अप्रमेय का विस्तार अथवा भार-कल्पना भी नहीं पहुँच सकती। तृणावर्त के लिए इनका भार असह्य हो गया है। उसका वेग शिथिल हो गया है। उसे लगता है कि वह भूल से कोई भारी शिला-पूरा पर्वत ही उठा लाया और अब कण्ठ कसता जा रहा है। इतने ऊपर आकर शिशु अपनी पकड़ तो सुदृढ़ करेगा ही। पुत्र तृणावर्त- नहीं सहस्राक्ष! अब तुम्हारे उद्धार का क्षण आ गया। व्यर्थ छटपटाओ मत। हाथ-पैर फेंकने से कृष्ण कण्ठ नहीं छोड़ेंगे। पकड़कर छोड़ना इन्हें नहीं आता। पूतना ने जो भूल की थी, वही तुमने भी की इनको अंक में उठाकर। कण्ठ कसता जा रहा है। नेत्र बाहर निकल आये हैं। केवल 'गों-गों' की अव्यक्त ध्वनि और इस ध्वनि को भी धरा पर नीचे गोकुल में गोप सुन नहीं सकते। गिर रहा है, गिर रहा है तृणावर्त! वह गिरा नन्दद्वार के बाहर शिला पर। तूने श्रीकृष्ण को शिला समझा था तो ले, शिला मिल गयी तुझे। |
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