नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. काकभुशुण्डि–क्रीड़ा
अग्रज हैं, सखा है, सभी आ जुटते हैं। सब एक दूसरे के उदर पर, कन्धे पर धूलि की मुट्ठियाँ डालते हैं और फिर स्वयं वह धूलि हटाने का भी यत्न करते हैं। दाऊ भी मधु-मंगल के साथ घरौंदे बनाने लगते हैं; किंतु ये जा बैठेंगे और अपने चपल चरण चलाकर सबके घरौंदे बिगाड़ेंगे। अपनों के मिट्टी के घरौंदे ये सदा से मिटाते ही आये हैं। इनका होकर कोई क्यों घरौंदे बनाये और उनमें मोह करे। ये सखा इनके-इनके घरौंदे भी इन्हीं के लिए। मधुमंगल और दूसरे भी रज एकत्र करके इन्हें उदर तक आच्छादित कर देते हैं। ये अपने चरण चलाकर रज हटाते हैं और हँसते हैं। रज डालते हैं सखाओं पर। छोटी-सी रोटी पर उज्वल नवनीत है करों में। कभी केवल नवनीत लेकर भी आ जाते हैं। तनिक-सा उठावेंगे दो अँगुलियों से और अग्रज को, भद्र को, किसी सखा को खिलावेंगे। अपने ही करों से खिलावेंगे। अपने श्रीमुख में डालने का स्मरण तो कदाचित ही आता है। लेकिन कोई रोटी या नवनीत छुओ मत। कोई कर बढ़ाता है तो हाथ हटा लेते हैं, रोकते हैं, पूरा सिर हिलाकर मना करते हैं। अपने श्रीमुख में दो-चार बार डाल लें तो यह प्रसाद हो जाय। तनिक-सी तोड़ रहे हैं और सखाओं को खिला रहे हैं, घूम-घूमकर नाच रहे हैं। अब मुझे भी वह तनिक-सा कण तोड़कर दिखाते हैं; किंतु आप इसे पहिले प्रसाद तो बना दो। मैं तो पूरी रोटी लेकर उड़ जाऊँगा। जानता हूँ-मुझे जाते ध्यान से आप देखते रहेंगे और सबको संकेत करके दिखावेंगे। मैया हँस देंगी-'बड़ा धृष्ट काक है।' |
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