नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. कुबला चाची- शैशव
मयूरों को भी इसके चारों ओर ही नाचते रहना है। वे आँगन में ही पंख फैलाये धीरे-धीरे घूमते हैं। बालक दोनों हाथों में पकड़ लेते हैं पक्षियों को। श्याम तो मयूर के ऊपर ही बैठने लगा कल। पक्षी चोंच चला दे सकते हैं। फड़फड़ाते समय उनके पंजे या पंख लग सकते हैं कहीं भी। अब ये कपि हैं, कितना भी भगाओ ये आँगन में बालकों के पास कूदकर आये बिना मानते नहीं। कृष्ण इनके कान या कण्ठ पकड़कर किलकारी लेता है। भद्र लिपट ही जाती है इनसे। दाऊ इनकी पूँछ पकड़ कर खींचता है। ये काटते नहीं, डराते नहीं; किंतु इनका कुछ ठिकाना है? हममें-से कोई समीप जाय तो ये दाँत दिखाते हैं। कैसे रोहिणी जीजी बालकों को क्षणभर भी छोड़ सकती हैं किसी के भरोसे। गोपों को गायें भी चरानी हैं। कोई कहाँ तक द्वार पर लाठी लिए बैठा रहे और महावन के मृगों को तो इन दिनों कुछ हो गया है। ये वन से भाग आते हैं व्रजराज के आँगन में। बालकों को सूँघते हैं और कूदते हैं उनके ऊपर से। कहीं इनके खुर, सींग लग जायँ तो? बालक इनके कान, सींग पकड़ लेते हैं। चाहे जब चोट लग सकती है! ये काली, उज्ज्वल, स्वर्णिम बिल्लियाँ हैं कि म्याऊँ-म्याऊँ करती बालकों के ही आसपास घूमती रहेंगी। ये बच्चें भी तो इन्हें नवनीत खिलाते हैं; किंतु श्याम इनको करों से पकड़ कर प्रसन्न होता है। बिल्लियाँ अपने नख छिपाये तो रहती हैं, पर पशु ही तो हैं! शिशु तो इनके मुखों में अँगुली डालते हैं, इनकी मूँछे खींचते हैं। बिल्लियों के नख-दन्त....। अभी-अभी की ही तो बात है। मैं तनिक रसोई में चली गयी रोहिणी जीजी के पास। अतुला भी कुछ कहने आयी और सब आँगन में पथ में पहुँच गये। व्रजेश्वरी जीजी पुकारती दौड़ीं- 'अरे, सब कहाँ चले गये?' जो देखा, उसे तो जी धक से रह गया। नीलमणि अपने झबरे कुक्कुर के मुख में हाथ डाले उसके दाँत देख रहा था सिर झुकाये। भद्र और अर्जुन उसके कान खींच रहे थे। दाऊ उसकी पीठ पर ही बैठने जा रहा था और विशाल उसकी पूँछ सीधी करने में लगा था। मैया को देखकर सब किलकारी लेकर उनसे ही लिपट गये। मैं देखती रह गयी व्रजेश्वरी की वह शोभा! एक साथ तीन को अंक में उठा लिया उन्होंने और दो को एक हाथ की अंगुलियाँ पकड़ा दी। इतने सबको अकेली यही सम्हाल सकती हैं। |
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