नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. कुबला चाची-शैशव
अब यह बोलने लगा है कुछ-कुछ। लेकिन इसका तुतलाना भी दूसरे बालकों से भिन्न है। इससे 'त' बोला ही नहीं जाता। पहिले-पहिले 'दा' कहा था इसने और फिर 'मा' कहना सीख गया। अब हम सबको ही 'मा' कहता है। अपने ताऊ को भी 'दाऊ' कहता है और फिर स्वयं सिर हिलाता है। समझाता है कि यह नहीं; किंतु करे क्या, वही दाऊ निकलता है इसके मुख से और जब ताई को 'दाई' कहता है तो सब हँस पड़ती हैं। सिर हिलावेगा और उन्हें भी हारकर 'माँ' कहेगा। मैंने प्रयत्न किया कि यह मुझे चाची कहे; क्योंकि इसे अब चाचा को 'छाछा' कहना तो आ गया है। मुझे 'छाछी' कहेगा तो कितना अच्छा लगेगा। लेकिन सिर हिला देता है। हँसता है और 'माँ' कहकर गोद में चढ़कर कण्ठ से लिपट जाता है। महर्षि शाण्डिल्य कहते हैं- 'जो शिशु हृस्व स्वर प्रारम्भ में नहीं बोल पाते, महाप्राणाक्षरों का उच्चारण करते है, वे महाप्राण हैं। श्रुतधर होते हैं वे।' यह चिरजीवी हो, सकुशल रहे! हम गोपों के इस युवराज के लिए बहुत विद्या आवश्यक तो नहीं है; किंतु लगता है कि यह विद्या के विषय में भी पिता-पितामह का नाम उज्ज्वल करेगा। नीलमणि ने देहली क्या पार कर ली, हम सबकी कठिनाई बहुत बढ़ गयी। अब यह अवसर पाते ही भवन से निकल जाता है। किसी गोप या गोपी को आगे जाते देखेगा तो घुटनों चलता उसी के पीछे लग जायगा और थकेगा तो पुकारेगा- 'दाऊ?' अथवा 'माँ'!' इसे लगता है कि सब इसके ताऊ या माँ हैं। केवल व्रजराज को बाबा कहता है। अपने चाचा को भी 'दाऊ' ही कहता है। जब आगे जाता गोप या गोपी मुड़कर देखेगी, गोद में लेने बढ़ेगी तब उसका मुख देखकर भागेगा पीछे मुड़कर। ऐसे में खुले पथ पर ये शिशु पता नहीं कितनी दूर चले जायँ तनिक ध्यान न दो तो और पथ पर तो पशु हैं, छकडे़ दौड़ते आते हैं- पता नहीं, कितनी विपत्तियाँ हैं वहाँ। हम सबको तो एक सुविधा भी है कि अपने शिशु यहाँ छोड़ जाओ और घर का काम कर लो; किंतु व्रजेश्वरी और रोहिणी जीजी को तो इनके कारण तनिक भी शांति नहीं। कुछ कर नहीं पातीं बेचारी। ये सब साथ ही रहेंगे, इतना तो ठीक; किंतु ये कब क्या करने लगेंगे, कोई ठिकाना है। उसमें भी यह नीलमणि तो अभी से बहुत चपल है। इसे पता नहीं, कब क्या सूझने लगे। इसे जो सूझेगा, सब वही करना चाहेंगे। |
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