नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. नाना सुमुख-अन्नप्राशन
बेटी रोहिणी कहती थीं- 'पितृव्य! तुम्हारा यह बड़ा दौहित्र तो कोई आकांक्षा भी नहीं करता। कभी तो मुझे पता लगा होता इसके रोने से कि इसे कब क्षुधा लगती है। मैं भूल जाँऊ तो यह भी भूखा चुपचाप बैठा रहेगा। जब से इसे अनुज मिला है, यह बस इसी के समीप बैठा रहेगा। अपने को तो यह और भी भूल गया है।' मेरी महारानी बेटी का कुमार है, कोई दरिद्र का पुत्र है कि तुच्छ पदार्थों की कामना करेगा! इसे बड़ा होने दो, सारा संसार इससे अपनी कामना की पूर्ति पावेगा! यह सबका शरणद, पालक बनेगा। यशोदा कहती हैं- 'दाऊ ने सामान्य शिशु की यह प्रकृति ही प्राप्त नहीं की कि कोई वस्तु मुट्ठी में आयी तो मुख में डाल ली। इसकी मुट्ठी में वस्तु आते ही यह इधर-उधर देखने लगता है कि किसको दे डाले। अपने खिलौने किसी भी शिशु को देकर ताली बजा-बजाकर झूमता है। जन्म से ही इसे देना ही देना आता है। अब तो कोई शिशु समीप न हो तो इसे दुग्धपान कराना कठिन हो गया है। दूसरों को नहीं दे लो, तो एकाकी कुछ यह लेने को उद्यत ही नहीं होता।' अब आज इसका अन्न-प्राशन है। मेरे नेत्र सफल होंगे आज। महर्षि शाण्डिल्य ने देव-पूजन करा दिया है। पितृतर्पण हो चुका। ब्राह्मण तृप्त कर दिये गये और उन्हें आज तो अनेकों ने दक्षिणा दी है। मैं ही कहाँ अकेला मातामह हूँ यहाँ। मेरी सब पुत्रियों के पिता आये हैं और उनमें किसी का उत्साह, औदार्य मुझसे कम तो नहीं है। मेरे राम-श्याम पर इन सबका स्वत्व मुझसे पहिले। गायों को, पशु-पक्षियों को भी तृप्त कर दिया गया है। मनुष्यों को, याचकों को, अतिथियों को तो गोप ढूँढ़-ढूँढ़कर खिला चुके। लेकिन नन्दराय का यह आग्रह कोई गोप कैसे सुन ले कि- 'आप सब भोजन कर लें तो सबके प्रसाद से शिशु को पवित्र होने का सौभाग्य प्राप्त हो।' यह कृष्णचन्द्र सभी का तो अपना ही है। पहिले तो विप्रवर्ग भी भोजन नहीं करना चाहता था; किंतु मर्यादा का मान रखने के लिए आग्रह नहीं कर सका। दूर-दूर तक के गोष्ठों में भरे छकड़े आ रहे हैं; किंतु सब गोपों का आग्रह उचित है- 'हम आज अपने युवराज का प्रसाद लेंगे!' |
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