नंद-नंदन बर गिरिवरधारी 6 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहौ
दूसरी चीर-हरन-लीला



चलहु न जाइ चीर अब लेहीं। लाज छाँड़ि उनकौं सुख देहीं।।
जल तैं निकसि तीर सब आईं। बार-बार हरि हरषि बुलाईं।।
बैठि गईं तरुनी सकुचानी। देहु स्याम हम अतिहिं लजानी।।
छाँड़ि देहु यह बात सयानी। वैसेहिं करौ कही जो बानी।।
कर कुच अंग ढाँकि भईं ठाढ़ी। बदन नवाइ लाज अति बाढ़ी।।
देहु स्याम अंबर अब डारी। हा हा दासी सबै तुम्हारी।।
ऐसैं नहीं बसन तुम पावहु। बाहँ उठाइ अंग दिखरावहु।।
कह्यौ मानि जुवतिनि कर जोरे। पुनि-पुनि जुवती करतिं निहोरे।।
धन्य धन्य कहि श्री गोपाला। निहचै ब्रत कीन्हौ ब्रज-बाला।।
आवहु निकट लेहु सब अंबर। चोली हार सुरँग पाटंबर।।
निकट गईं सुनि कै यह बानी। तरुनी नगन अंग अकुलानी।।
भूषन बसन सबनि कौं दीन्हौ। तिनकैं हेत कृपा हरि कीन्हौ।।
चीर अभूषन पहिरे नारी। कह्यौ तबहिं ऐसे बनवारी।।
तब हँसि बोले कृष्न मुरारी। मैं पति तुम मेरी सब प्यारी।।
तुमहिं हेत यह बपु ब्रज धारयौ। तुम कारन बैकुंठ बिसारयौ।।
अब ब्रत करि तुम तनहिं न गारौ। मैं तुमतैं कहुँ होत न न्यारौ।।
मोहिं कारन तुम अति तप साध्यौ। तन मन करि मोकौं आराध्यौ।।
जाहु सदन अब सब ब्रज-बाला। अंग परसि मेटे जंजाला।।
जुवतिनि विदा दई गिरिधारी। गई घरनि सब घोष-कुमारी।।
वस्त्र हरन-लीला प्रभु कीन्हौ। ब्रज तरुनिनि ब्रज कौं फल दीन्हौ।।
यह लीला स्रवननि सुनि भावै। औरनि सिखवै आपुन गावै।।
सूर स्याम जन के सुखदाई। दृढ़ताई मैं प्रगट कन्हाई।।799।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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