नंद-नंदन बर गिरिवरधारी 4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहौ
दूसरी चीर-हरन-लीला



बार-बार जुबती पछिताहीं। सबके बसन अभूषन नाहीं।।
ऐसौं कौन सबनि लै भाग्यौ। लेतहु ताहि बिलंब न लाग्यौ।।
माघ तुषार जुबति अकुलाहीं। ह्याँ कहुँ नंद सुवन तौ नाहीं।।
हम जानी यह बात बनाई। अंबर हरि लै गए कन्हाई।।
हौ कहुँ स्याम बिनय सुनि लीजै। अंबर देहु कृपा करि जीजै।।
थर-थर अंग कंपति सुकुमारी। देखि स्याम नहिं सके सम्हारी।।
इहिं अंतर प्रभु बचन सुनायौ। व्रत कौ फल दरसन सब पायौ।।
कहा कहतिं मोसौं ब्रज-बाला। माघ सीत कत होतिं बिहाला।।
अंबर जहाँ बताऊँ तुमकौं। तौ तुम कहा देहुगी हमकौं।।
तन मन अर्पन तुमकौं कीन्हौं। जौ कछु हुतौ सु तुमकौं दीन्हौं।।
और कहा लैहौ जू हमसौं। हम माँगति हैं अंबर तुमसौं।।
यह सुनि हँसे दयाल मुरारी। मेरौ कह्यौ करी सुकुमारी।।
जल तैं निकसि सबै तट आवहु। तबहिं भलै अंबर तुम पावहु।।
भुजा पसारि दीन ह्वै भाषहु। दोउ कर जोरि-जोरि तुम राखहु।।
सुनहु स्याम इक बात हमारी। नगन कहूँ देखियै न नारी।।
यह मति आपु कहाँ धौं पाई। आजु सुनी यह बात नवाई।।
ऐसी साध मनहिं मैं राखहु। यह बानी मुख तैं जनि भाषहु।।
हम तरुनी तुम तरुन कन्हाई। बिना बसन क्यौ देहिं दिखाई।।
पुरुष जाति तुम यह कह जानौ। हा हा यह मुख मैं जनि आनौ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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