नंद-नंदन बर गिरिवरधारी 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहौ
दूसरी चीर-हरन-लीला



इतनौ कष्ट करैं सुकुमारी। पति कें हेत गुबर्धन-धारी।।
अति तप करतिं देखि गोपाला। मन मैं कह्यौ धन्य ब्रज-बाला।।
हरि अंतर्जामी सब जानी। छिन-छिन की बहु सेवा मानी।।
ब्रत-फल इनहिं प्रगट दिखरावौं। बसन हरौं लै कदम चढ़ावौ।।
तन साधन तप कियौ कुमारी। भज्यौ मोहिं कामातुर नारी।।
सोरह सहम गोप-सुकुमारी। सबके बसन हरे बनवारी।।
हरत बसन कछु बार न लागी। जल-भीतर जुवती सब नाँगी।।
भूषन बसन सबै हरि ल्याए। कदम-डार जहँ-तहँ लटकाए।।
ऐसौ नीप-बृच्छ बिस्तारा। चीर हार धौं कितक हजारा।।
सबै समाने तरुवर डारा। यह लीला रची नंद-कुमार।।
हार चीर मान्यौ तरु फूल्यौ। निरखि स्याम आपुन अनुकूल्यौ।।
नेम सहित जुवती सब न्हाईं। मन-मन सबिता बिनय सुनाई।।
मूँदें नैन ध्यान उर धारे। नंद-नंदन पति होहिं हमारे।।
रबि करि बिनय-सिवहिं मन लीन्हौ। हृदय माँझ अवलोकन कीन्हौं।।
त्रिपुर-सदन त्रिपुरारि त्रिलोचन। गौरीपति पशुपति अघ-मोचन।।
गरल-असन, अहि-भूषन-धारी। जटा धरन, सिर गंगा प्यारी।।
करति बिनय यह माँगति तुम सौं। करहु कृपा हँसि कै आपुन सौं।।
हम पावैं सुत-जसुमति कौ पति। यहै देहु करि कृपा देव, रति।।
नित्य नेम करि चलीं कुमारी। एक जाम तन कौं हिम गारी।।
ब्रज-ललना कह्यौ नीर जुड़ाई। अति आतुर ह्वै तट कौं धाईं।।
जल तैं निकसि तरुनि तट आईं। चीर अभूषन तहाँ न पाईं।।
सकुचि गईं जल-भीतर धाई। देखि हँसत तरु चढ़े कन्हाई।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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