नंद-नंदन बर गिरिवरधारी 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहौ
दूसरी चीर-हरन-लीला



ऐसैंहिं करत बहुत दिन बीते। प्रभु अंतरजामी मन चीते।।
एक दिवस आपुन आए तहँ। नव तरुनी अस्नान करतिं जहँ।।
बसन धरे जल-तीर उतारी। आपुन जल पैठीं सुकुमारी।।
कृष्न हेत अस्नान करैं जहँ। सबके पाछैं आपुन ह्वैं तहँ।।
मींजत पीठि प्रीति अति बाढ़ी। चकृत भईं जुवती सब ठाढ़ी।।
देखे नँद-नंदन गिरिधारी। ब्रत-फल प्रगट भए बनवारी।।
सकुचि अंग जब बैठि लुकावैं। बार-बार हरि अंकम लावै।।
लाज नहीं आवति है तुमकौं। देखत बसन बिना सब हमकौं।।
हँसत चले तब नंद-कुमार। लोगनि सुनवतिं करतिं पुकार।।
हार चीर लै चले पराई। हाँक दई कहि नंद-दुहाई।।
डारि बसन भूषन तब भागे। स्याम करन अब ढीठौ लागे।।
भागैं कहाँ बचौगे मोहन। पाछैं आइ गईं तुव गोहन।।
तन की सुधि-सम्हार कछु नाहीं। बसन अभूषन पहिरति जाहीं।।
चीर फटे कंचुकि-बंद छूटे। लेत न बसत हार-लर टूटे।।
प्रेम सहित मुख खीझति जाहीं। झूठहिं बार-बार पछिताहीं।।
गईं सबै तिय नंद महर-घर। जसुमति पास गईं सब दर दर।।
देखौ महरि स्याम के ये गुन। ऐसे हाल करे सबके उन।।
चोली, चीर, हार बिखराए। आपुन मागि इतहिं कौं आए।।
जमुना-तट कोउ जान न पावै। संग सखा लिए पाछैं धावै।।
तुम सुत कौं बरजहु नँदरानी। गिरिधर भली करत नहिं बानी।।
लाज लगति इक बात सुनावत। अंचल छोरि हियौ दिखरावत।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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