नंदनँदन सौ इतनी कहियौ।
जद्यपि ब्रज अनाथ करि डारयौ, तद्दपि सुरति किए चित रहियौ।।
तिनका तोर करहु जनि हम सौ, एक बास की लाज निबहियौ।
गुन औगुननि दोष नहि कीजतु, हम दासिनि की इतनी सहियौ।।
तुम विनु प्रान कहा हम करिहै, यह अबलब न सुपनेहु लहियौ।
‘सूरदास’ पाती लिखि पठई, जहाँ प्रीति तहँ ओर निबहियौ।।4066।।