नंदनँदन बिनु कल न परै।
अति अनुराग भरी जुवती सब, जहाँ स्याम तहँ चित्त ढरै।।
भवन गई मन तहाँ न लागै, गुरु गुरुजन अति त्रास करै।
वै कछु कहै, करै कछु औरै, सासु ननद तिन पर झहरै।।
यहै तुमहि पितु मातु सिखायौ, बोल करति नहि, रिसनि जरै।
'सूरदास' प्रभु सौ चित अरुझ्यौ, यह समुझै जिय ज्ञान धरै।।1920।।