धन जन ‌अभिजन भवन सकल -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

प्रेम तत्त्व एवं गोपी प्रेम का महत्त्व

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राग पूर्वी - ताल कहरवा

धन-जन-‌अभिजन-भवन सकल सुख-साधन, कलित कीर्ति, समान।
इह पर-लोक भोग-वैभव लोकोत्तर सद्‌‌गति मुक्ति महान॥
कहीं, किसी भी वस्तु, परिस्थिति में न रहा सखि! रंचक राग।
छाया नित्य एक अनुपम आत्यन्तिक प्रियतम-पद अनुराग॥
लोक और परलोक-नाश के, नहीं नरक के भय का लेश।
प्रियतम पूर्ण सकल जीवन में रही न कहीं अन्य स्मृति शेष॥
नित्य नवीन मधुरतम अनुभव, नित्य नवीन-त्याग-वैराग।
नित्य नवीन रसास्वादन रस-पूर्ण दिव्य नव-नव अनुराग॥
साथ नहीं किसी की, कुछ भी, कहीं नहीं होती कुछ बोध।
अतः किसी में नहीं बचा कुछ राग, नहीं कुछ वैर-विरोध॥
नहीं कल्पना को भी ख़ाली रहा न को‌ई मन में स्थान।
मन भी नहीं रहा अब, उसको भी हरि हर ले गये सुजान॥
अपने मन से अपने मन का, अपने तन से तन का काम।
पूर्णकाम प्रिय करते रहते निज कामना-पूर्ति अविराम॥
क्या करते, क्यों करते, कैसे करते?-उनसे पूछे कौन;
मन में आता वही बोलते, मन में आता रहते मौन॥
बिलग बोध कर तदपि स्वयं करते अनुभव संयोग-वियोग।
करते स्वयं कराते रहते नित नव मधुर दिव्य रस-भोग॥
परम रसिक वे रसमय रहते बने-बनाये दो प्रिय रूप।
रस लेते, रस-पान कराते, रस बरसाते अमित अनूप॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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