धन्य धन्य वृषभानु कुमारी गिरिबरधर बस कीन्हे (री)।
जोइ जोइ साध करी पिय रस की, सो सब उनकौ दीन्हे (री)।।
तोसी तिया और त्रिभुवन मै, पुरुष स्याम से नाही (री)।
कोक-कला-पूरन तुम दोऊ, अब न कहूँ हरि जाही (री)।।
ऐसे बस तुम भए परस्पर, मोसौ प्रेम दुरावै (री)।
'सूर' सखी आनंद न सम्हारति, नागरि कंठ लगावै (री)।।2674।।