द्विज कहियौ हरि कौ समुझाइ।
सकत सृगाल सिंह की भोजन, दुरबल देखि छीनि कै खाइ।।
काहे कौ नेम धर्म व्रत कीन्हौ, माघ माल जल सीत अन्हाइ।
परमिति गऐ लाज तुमही कौ, हंस कौ भाग काग लै जाइ।।
वै कहियत है चतुर सिरोमनि, सबके ठाकुर जादौराइ।
'सूरदास' प्रभु बेगि न आवहु, प्रान गऐं कह लैहौं आइ।। 4170।।