द्वारका में अर्जुन और वसुदेव की बातचीत

महाभारत मौसल पर्व के अंतर्गत छठवें अध्याय में वैशम्पायन जी ने द्वारका में अर्जुन और वसुदेव जी के बातचीत करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

अर्जुन और वसुदेव जी की बातचीत

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मामा के महल में पहुँकर कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने देखा कि वीर महात्मा वसुदेव जी पुत्र शोक से दुखी होकर पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। भरतनन्दन! चौड़ी छाती और विशाल भुजा वाले कुन्तीकुमार अर्जुन अपने शोकाकुल मामा की वह दशा देखकर अत्यन्त संतप्त हो उठे। उनके नेत्रों में आँसू भर आये और उन्होंने मामा के दोनों पैर पकड़ लिये। शत्रुघाती नरेश! महाबाहु आनकदुन्दुभि (वसुदेव) ने चाहा कि मैं अपने भानजे अर्जुन का मस्तक सूँघ लूँ; परंतु असमर्थतावश वे ऐसा न कर सके। महाबाहु बूढ़े वसुदेव जी ने अपनी दोनों भुजाओं से अर्जुन को खींचकर छाती से लगा लिया और अपने समस्त पुत्रों का स्मरण करके रोने लगे। फिर भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, दौहित्रों और मित्रों का भी याद करके अत्यन्त व्याकुल हो वे विलाप करने लगे। वसुदेव बोले- अर्जुन! जिन वीरों ने सैकड़ों दैत्यों तथा राजाओं पर विजय पायी थी उन्हें आज यहाँ मैं नहीं देख पा रहा हूँ तो भी मेरे प्राण नहीं निकलते। जान पड़ता है, मेरे लिये मृत्यु दुर्लभ है। अर्जुन! जो तुम्हारे प्रिय शिष्य थे और जिनका तुम बहुत सम्मान किया करते थे उन्हीं दोनों (सात्यकि और प्रद्युम्न) के अन्याय से समस्त वृष्णिवंशी मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। कुरुश्रेष्ठ धनंजय! वृष्णि वंश के प्रमुख वीरों में जिन दो को ही अतिरथी माना जाता था तथा तुम भी चर्चा चलाकर जिन की प्रंशसा के गीत गाते थे वे श्रीकृष्ण के प्रीतिभाजन प्रद्युम्न और सात्यकि ही इस समय वृष्णिवंशियों के विनाश के प्रमुख कारण बने हैं।

अथवा अर्जुन! इस विषय में मैं सात्यकि, कृतवर्मा, अक्रूर और प्रद्युम्न की निन्दा नहीं करूँगा। वास्तव में ऋषियों का शाप ही यादवों के इस सर्वनाश का प्रधान कारण है। कुन्‍तीनन्‍दन! जिन जगदीश्‍वर ने पराक्रम प्रकट करके केशी और कंस को देह बंधन से मुक्‍त कर दिया। बल का घमण्‍ड रखने वाले चेदिराज शिशुपाल, निषादपुत्र एकलव्‍य, कलिंगराज, मगध निवासी क्षत्रिय, गान्‍धार, काशिराज तथा मरूभूमि के राजाओं को भी यमलोक भेज दिया था, जिन्‍होंने पूर्व, दक्षिण तथा पर्वतीय प्रान्‍त के नरेशों का भी संहार कर डाला था, उन्‍हीं मधुसूदन ने बालकों की अनीति के कारण प्राप्‍त हुए इस संकट की उपेक्षा कर दी। तुम, देवर्षि नारद तथा अन्‍य महर्षि भी श्रीकृष्‍ण को पाप के सम्‍पर्क से रहित, सनातन, अच्‍युत परमेश्‍वर रूप से जानते है। वे ही सर्वव्‍यापी अधोक्षज अपने कुटुम्‍बीजनों के इस विनाश को चुपचाप देखते रहे। परंतप अर्जुन! मेरे पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए वे जगदीश्‍वर गान्धारी तथा महर्षियों के शाप को पलटना नहीं चाहते थे, इसलिये उन्‍होंने सदा ही इस संकट की उपेक्षा की। परंतप! तुम्‍हारा पौत्र परीक्षित अश्वत्थामा द्वारा मारा डाला गया था तो भी श्रीकृष्‍ण के तेज से वह जीवित हो गया। यह तो तुम लोगों की आंखों देखी घटना है। इतने शक्तिशाली होते हुए भी तुम्‍हारे सखा ने अपने इन भाई-बन्‍धुओं को प्राण संकट से बचाने की इच्‍छा नही की। जब पुत्र, पौत्र भाई और मित्र सभी एक दूसरे के हाथ से मरकर धराशायी हो गये तब उन्‍हे उस अवस्‍था में देखकर श्रीकृष्‍ण मेरे पास आये और इस प्रकार बोले।[1]

पुरुषप्रवर पिता जी! आज इस कुल का संहार हो गया। अर्जुन द्वारकापुरी में आने वाले है। आने पर उनसे वृष्णिवंशियों के इस महान विनाश का वृतान्‍त कहियेगा। प्रभो अर्जुन के पास सन्‍देश भी पहुँचा होगा। वे महातेजस्‍वी कुन्‍तीकुमार यदुवंशियों के विनाश का यह समाचार सुनकर शीघ्र ही यहाँ आ पहुँचेंगे। इस विषय में मेरा कोई अन्‍यथा विचार नहीं है। जो मैं हूँ उसे अर्जुन समझिये, जो अर्जुन हैं वह मैं ही हूँ। माधव! अर्जुन जो कुछ भी कहें वैसा ही आप लोगों को करना चाहिये। इस बात को अच्‍छी तरह समझ लें। जिन स्त्रियों का प्रसवकाल समीप हो, उन पर और छोटे बालकों पर अर्जुन विशेष रूप से ध्‍यान देंगे और वे ही आपका और्ध्‍वदेहिक संस्‍कार भी करेंगे। अर्जुन के चले जाने पर चहारदीवारी और अट्टालिकाओं सहित इस नगरी को समुद्र तत्‍काल डुबो देगा। मैं किसी पवित्र स्‍थान में रहकर शौच-संन्‍तोषादि नियमों का आश्रय ले बुद्धिमान बलराम जी के साथ शीघ्र ही काल की प्रतीक्षा करूंगा। ऐसा कहकर अचिन्‍त्‍य पराक्रमी प्रभावशाली श्रीकृष्‍ण बालकों के साथ मुझे छोड़कर किसी किसी अज्ञात दिशा को चले गये हैं। तब से मैं तुम्‍हारे दोनों भाई महात्‍मा बलराम और श्रीकृष्‍ण तथा कुटुम्‍बीजनों के इस घोर संहार का चिन्‍तन करके शोक से गलता जा रहा हूँ। मुझसे भोजन नहीं किया जाता। अब मैं न तो भोजन करूंगा और न इस जीवन को ही रखूंगा। पाण्‍डुनन्‍दन! सौभाग्‍य की बात है कि तुम यहाँ आ गये। पार्थ! श्रीकृष्‍ण ने जो कुछ कहा है, वह सब करो। यह राज्‍य, ये स्त्रियां और ये रत्‍न-सब तुम्‍हारे अधीन है। शत्रुसूदन! अब मैं निश्चिन्‍त होकर अपने इन प्‍यारे प्राणों का परित्‍याग करूंगा।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत मौसल पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-18
  2. महाभारत मौसल पर्व अध्याय 6 श्लोक 19-28

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