देखि री देखि सोभा-रासि।
काम-पटतर कहा दीजै, रमा जिनकी दासि।।
मुकुट सीस सिखंड सोहै, निरखि रही ब्रज-नारि।
कोटि सुर-कोदंड-आभा, झिरकि डारैं बारि।।
केस कुचित बिथुरि भ्रुव पर, बीच सोभा भाल।
मनौ चदहि अबल जान्यौ, राहु घेरयौ जाल।।
चारु कुंडल सुभग स्रवननि, को सकै उपमाइ।
कोटि कोटि कला तरनि छबि, देखि तनु भरमाइ।।
सुभग मुख पर चारु लोचन, नासिका इहिं भाँति।
मनौ खंजन बीच सुक मिलि, बैठे हैं इक पाँति।।
सुभग नासा तर अधरछबि रस धरे अरुनाइ।
मनौ बिंब बिहारि सुक, भ्रुव धनुष देखि डराइ।।
हँसत दसननि चमकताई, बज्र-कन रची पाँति।
दामिनी, दारिम नहीं सरि, कियौ मन अति भ्रांति।।
चिबुक वर चित बित चुरावत, नबल नंदकिसोर।
‘सूर’ प्रभु की निरखि सोभा भई तरुनी भोर।।1819।।