देखि री कमलनि, मधुर मधुर बैन, हँसि हँसि कब के करत मनुहारि।
जब हरि चितवत, भरि भरि अँखियनि, लाड़िली वारि तू मान की रिस निवारि।।
अतिहिं आसक्त जानि, मोहन सुजान मानि रीझि मन मान दान दै प्रीति बिचारि।
'सूरदास' प्रभु के री चरननि पूजि आली, क्यौ न रहै प्रेम उमँगि अँसुवा ढारि।।2754।।