देखि अक्रूर नर नारि बिलखे।
धनुर्भजन यज्ञ हेत बोले इन्है, और डर नहीं सब कहि सँतोष।।
महरि व्याकुल दौरि पाइं गहि लै परी, नंद उपनंद सँग जाहु लैकै।
राज कौ अस लिखि लेहु दूनौ देहुँ, मैं कहा करौ सुत दुहुँनि दैकै।।
कहति ब्रजनारि नैननि नीर ढारि कै, इन्हनि कौ काज मथुरा कहा है।
'सूर' नृप कूर अकूर कूरै भए, धनुष देखन कह्यौ कपटी महा है।।2967।।