देखा स्वप्न राधिकाने हो गयी दुखित अतिशय तत्काल।
सुना रहे माधव उद्धवसे अपनी दुर्गतिका सब हाल॥
दुर्बल, अति कृशकाय, मलिन-मुख, श्रान्तिपूर्ण मानस अति दीन।
बहा रहे थे नेत्र उष्ण जल दोनों, था सब वेश मलीन॥
’मेरे विरह-व्यथित अति राधा करती नित्य विलाप अधीर।
करती सदा स्मरण मेरा निर्दहन, बहाती लोचन नीर॥
क्षण न भूल सकती वह मुझको, क्षण न कभी पाती वह शान्ति॥
बढ़ता नित्य निरतिशय उसका हृदय-दाह भीषणतम भ्रान्ति॥
इसका कारण यही एक मैं भूल नहीं पाता क्षण एक।
रहता सदा धधकता उरमें विरहानल, कर भस्म विवेक॥
मेरे उरकी ज्वाला बढ़ती, नित्य बढ़ाती उसका दाह।
क्योंकि मधुर स्मृति उसकी रहती मेरे उरमें भरी अथाह॥
यह स्मृति ही उसमें नित जाग्रत करती मेरी स्मृति अविराम।
इससे जलता हृदय, सूखता जाता उसका बदन ललाम॥
किसी तरह यदि मैं राधाको उद्धव ! यदि जा पाऊँ भूल।
तो उर-दाह बुझे राधाका, मिटे तभी मेरा उर-शूल॥
इसी भयानक चिन्तासे हो रही दुर्दशा मेरी आज।
इसी हेतु मेरे जीवनमें अद्भुत छाया शोक-समाज॥
कितना मैं निष्ठुर, निर्दय हूँ, सदा कोसता अपने-आप।
इतनी दूर मधुपुरी से भी देता प्यारी को संताप’॥