देखन दै बृंदाबन-चंदहिं।
हा हा कंत मानि बिननी यह, कुल-अभिमान छाँड़ि मति-मंदहिं।।
कहि क्यौं भूलि धरत जिय औरै, जानत नहिं पावन नँद-नंदहिं।
दरसन पाइ आइहौं अबहीं, करन सकल तेरे दुख-दंदहिं।।
सठ समुझाएहुँ समुझत नाहीं, खोलत नहीं कपट के फंदहिं।
देह छाँड़ि प्राननि भई प्रापत, सूर सु प्रभु-आनंद-निधि-कंदहिं।।803।।