देखन कौं मंदिर आनि चढ़ी।
रघुपति पूरनचंद विलोकत, मनु-पुर जलधि-तरंग बढ़ी।
प्रिय-दरसन-प्यासी अति आतुर, निसि-वासर गुन-ग्राम रढ़ी।
रही न लोक-लाज मुख निरखत, सोम नाइ आसीम पढ़ी।
भई देह जो खेह करम-बस, जनु तट गंगा अनल दढ़ी।
सूरदास प्रभु दृष्टि सुवानिधि मानौ फेरि बनाइ गढ़ी॥170॥