देखत भूलि रह्यौ द्विज दीन।
मन सुधि परै समुझि नहि आवै, मेरौ गृह प्राचीन।।
किधौ देवमाया मति मोह्यौ, किधौ, अनत ही आयौ।
त्रिनहु की छाँह ग़ई निधि माँगत, बहुत जतन हौ छायौ।।
चितवत चकित चहूँ दिसि बाम्हन, अद्भुत लीला रीति।
ऊँचे भवन मनोहर छाजे, मनि, कंचन की भीति।।
चलौ कत यह सब हरि किरपा, पाँउ धारिए धाम।
तब पहिचानि धँसे मंदिर मैं, ‘सूर’ सकल अभिराम।। 4236।।