दृढ़ करि धरी अब यह बानि।
कहा कीजै सो नफा, जिहिं होइ जिय की हानि।।
लोक लज्जा काँच किरचैं, स्याम-कंचन-खानि।
कौन लीजै, कौन तजियै, सखि तुमहिं कहौ जानि।।
मोहिं तौ नहिं और सूझत, बिना मृदु मुसुक्यानि।
रंग कापै होत न्यारौ, हरद चूनौ सानि।।
इहै करिहौं और तजिहौं, परी ऐसी आनि।
सूर प्रभु पतिवर्त्त राखौं, मेटि कै कुल-कानि।।1459।।