दीन जन क्यौं करि आवै सरन।
भूल्यौ फिरत सकल जल-थल-मग, सुनहु ताप-त्रय-हरन।
परम अनाथ, विवेक-नैन बिनु, निगम-ऐन क्यौं पावै?
पग पग परत कर्म-तम-कूपहिं, को करि कृपा बचावै?
नहिं करि लकुटि सुमति-सतसंगति, जिहिं अधार अनुसरई।
प्रबल अपार मोह-निधि दस-दिसि, सु धौ कहा अब करई।
अखुटित रटत सभीत, ससंकित, सुकृत सब्द नहिं पावै।
सूर स्याम-पद-नख-प्रकास विनु, क्यों करि तिमिर नसावै।।48।।