श्रीकृष्णांक
दीनबन्धु श्रीकृष्ण
भारतीय धर्म के इतिहास में कर्म, उपासन और ज्ञान- इन तीनों काण्डों का विकास बड़ी ही सुन्दऱ्ता से हुआ है, इस बात को सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। पर उसमें भी भगवान श्रीकृष्णचंद्र का सभी मतों का समन्वय कर सम्पूर्ण मानव समाज को चारित्र्यबल तथा आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाने का महान उद्योग तो भारत का अमर गौरव है। भगवान ने अपने दिव्योपदेश श्रीमद्भगवद्गीता में कही एक शब्द से भी किसी धर्म, सम्प्रदाय तथा मानव समाज के किसी अंश की अवहेलना नहीं की। वे तो संसार के पथ प्रदर्शन थे। वे क्यों किसी की निन्दा या तिरस्कार कर किसी को निरुत्साहित करने लगे ? ऊनहें तो सभी को कल्याण मार्ग पर ले जाना ठहरा। भगवान जब श्रीगीताजी के तीसरे अध्याय में अर्जुन से कहते हैं- उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । ’यदि मैं कर्म न करुं तो यह सब लोक भ्रष्ट हो जाय और मैं वर्णसंकरता का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा को नश्ट करुं’ तो इससे वे अपने उत्तरदायित्व की कितनी जागरुकता दिखलाते हैं। यही कारण है कि उनके कथन में कही भी किसी से विरोध नहीं है, बल्कि सबके कल्याण की चिन्ता स्पष्ट झलकती है। समाज में यह सदा देखा जाता है कि जो बुद्धिमान, शक्तिशाली, धन-सम्पन्न गुणी तथा तेजस्वी होते हैं, उनका सम्मान होता है और उन्हीं की ओर सबका ध्यान रहता है, परन्तु जो दुर्बल हैं, जिन्हें अपने गुण, पौरुष्य तथा कार्यतत्परता को समाज में दिखलाने का अवसर नही मिलता तथा जो सदा अपने कठोर कर्तव्य पालन में लगे रहने के कारण विद्या, सत्संग और सामाजिक प्रतिष्ठा से वंचित रहते हैं, उन्हें समाज सदा से ही हेय-दृष्टि से देखता आ रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज के इस भाव का प्रभाव उन पर भी पड़ा और अन्तत: वे भी अपने को दीन मानने लगे। इससे समाज को बड़ी हानि पहुँची, क्योंकि समाज में ऐसे प्राणी सदा से अधिक ही रहते आये हैं और इनके तिरस्कार तथा दीनता की प्रतिक्रिया समाज पर उसी रुप में होनी अनिवार्य है। संगति के गुण-दोषों से कोई भी समाज मुक्त नहीं रह सकता । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3। 24
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