दिव्य प्रेम 9

दिव्य प्रेम


मोक्ष- संन्यास का यथार्थ अर्थ क्या है, मुझे पता नहीं; मुझे गीता का न अध्ययन है, न ज्ञान। यह तो मैंने ‘स्वान्तःसुखाय’ अपने मन का अर्थ कह दिया है। वैसे न मैं जानता हूँ, न शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ, न विवाद, मैं तो सदा ही हारा हुआ हूँ। गीतामर्मज्ञ विज्ञ महानुभाव मेरी धृष्टता के लिये कृपया क्षमा करें!

इतना अवश्य ध्यान में रखना चाहिये कि जब तक मोक्ष की इच्छा है तब तक स्वसुख-वान्छा है ही; क्योंकि इसमें अपने बन्धन की अनुभूति है। बन्धन दुःख रूप है, उससे मुक्ति प्राप्त कर वह मोक्ष-सुख को प्राप्त करना चाहता है। यही स्वसुख की चाह है। अतः यहाँ भी सर्वत्यागपूर्ण त्याग नहीं है, प्रेमीजन पूर्ण त्यागी होते हैं। अतः वे मोक्ष का भी परित्याग करके केवल प्रेमसेवा में ही सहज संलग्न रहते हैं। ऐसे प्रेमियों की तो बात ही दूसरी है, उनके जरा से संग के साथ भी मोक्ष की तुलना नहीं होती। श्रीमद्भागवत में कहा है-

तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवम्।
भगवत्संगिसंगस्य मत्र्यानां किमुताशिषः।।[1]

‘भगवत्संगी का अर्थ है- भगवान में अनुरक्त-आसक्त, भगवान का संगी, भगवान का प्रेमी, गोपीभावापन्न। ऐसे भगवत्संगी का संग यदि लवमात्र के समय के लिये मिलता हो तो उसकी तुलना यहाँ के भोगों की तो बात ही क्या है, स्वर्ग से भी नहीं होती, वरं अपुनर्भव-मोक्ष से भी नहीं होती। ‘अपुनर्भव’ का अर्थ है- जिससे वापस नहीं लौटा जाता, वैसी ‘सायुज्य मुक्ति’। इस मुक्त की भी लवमात्र के भगवत्संगी के संग से तुलना नहीं होती। यह भगत्वप्रेम की महिमा है। इसी से इस प्रेम की, इस दिव्य भगवत्प्रेम की- व्रजरस की वान्छा शिव, नारद आदि, महान मुनि-तपस्वी आदि करते हैं। स्वयं ब्रह्मविद्या भी इस प्रेम के लिये लालायित हैं-

जाबालि नामक ब्रह्मज्ञानी मुनि ने एक बार विशाल वन में विचरते समय एक विशाल बावली के तट पर वट के वृक्ष की छाया में एक अनन्य सुन्दरी परम तेजोमयी तरुणी देवी को कठोर तप करते देखा। चन्द्रमा की शुभ्र ज्योत्स्ना के सदृश उसकी चाँदनी चारों और छिटक रही थी। उसे देखकर मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह जानना चाहा कि ‘ये देवी कौन हैं तथा क्यों तपस्या कर रही हैं।’ पूछने पर पता लगा कि जिनके शरण प्राप्त करने पर अज्ञानान्धकार सदा के लिये नष्ट हो जाता है, दुर्लभ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तथा जीव माया के बन्धन से मुक्त होकर स्व-स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, वे स्वयं ब्रह्मविद्या ही ये हैं। नम्रता के साथ प्रश्न करने पर तापसी देवी ने कहा-


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1।18।13; 4।30।34

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