दिव्य प्रेम 7

दिव्य प्रेम


प्रियस्य संनिकर्षेऽपि प्रेमोत्कर्षस्वभावतः।
या विश्लेषधिार्तिस्तं प्रेमवैचित्यमुच्यते।।

‘प्रेम की उत्कर्षता के कारण प्रियतम के समीप रहने पर भी उनके न रहने के निश्चय से होने वाली पीड़ा का अनुभव होना प्रेम-वैचित्य कहलाता है।’ इस प्रकार प्रेमसागर में अनन्त मधुरातिमधुर तरंगें उठा करती हैं। इनका वर्णन कौन करे? जो तट पर खड़ा है, वह तो तरंगों के भीतर की स्थित जान नहीं सकता और जो तरंगों में मिल गया, वह तरंग ही बन जाता है। इसी से प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है- ‘अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्।।’[1]

कभी-कभी ऐसा होता है प्रेमी और प्रेमास्पद अपने-आपको भूलकर एक-दूसरे बन जाते हैं। नटवर रसिकशेखर श्रीश्यामसुन्दर अपने को राधा मानकर हा कृष्ण! हा श्यामसुन्दर! हा प्राणवल्लभ! पुकारने लगते हैं और रासेश्वरि नित्य निकुन्जेश्वरि श्रीराधारानी श्रीकृष्ण के आवेश में हा राधे! हा प्राणेश्वरी! हा प्राणाधिके! हा मनमोहनी! पुकारा करती हैं। ये सभी प्रेमसमुद्र की पवित्रतम मधुर-मधुर तरंगें हैं। यह श्रीराधा-माधव का प्रेम, प्रेमविहार, प्रेमलीला नित्य है और नित्य वर्द्धनशील है, इसी से उनका अप्रतिम आनन्द भी नित्य और प्रतिक्षण वर्द्धनशील है। किसी-किसी युग में कोई ऐसे प्रेमी संत होते हैं, जो इस प्रेमलीला का दर्शन करना चाहते हैं। तब उनकी प्रीति से प्रेरित होकर भगवान अपने दिव्य धाम तथा प्रेमी परिकरों, सखाओं, सखियों को लेकर दिव्यधाम के दिव्य चिन्मय पशु-पक्षियों और वृक्ष लताओं को लेकर इस मर्त्य भूमि पर अवतरित होते हैं। यही भगवान श्रीराघवेन्द्र की अवधलीला है और यही श्रीव्रजेन्द्रनन्दन की व्रजलीला है। इस प्रेमराज्य में उन्हीं का प्रवेश है जो अपने को खोकर स्वसुख की समस्त वान्छाओं को मिटाकर भगवान के ही हो जाते हैं। इस प्रकार त्याग की पराकाष्ठा से उदित दिव्य प्रेम को वैष्णवों ने ‘पंचम पुरुषार्थ’ बताया है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चार पुरुषार्थ प्रसिद्ध हैं। प्रेम पंचम पुरुषार्थ है, जहाँ मोक्ष की कामना का भी परित्याग हो जाता है। प्रेम-सेवा को छोड़कर प्रेमी भक्त देने पर भी मुक्ति को स्वीकार नहीं करते।

‘दीयमानं न गृहल्ति पिलर मत्त्सेवनं जनाः।।’


यही त्याग की पराकाष्ठा है। इसमें ‘अहं’ की चिन्ता या ‘अहं’ की मंगल-कामना का सर्वथा अभाव है। जहाँ मोक्ष की कामना है, वहाँ बन्धन की अपेक्षा है। बन्धन न हो तो मोक्ष-छुटकारा किससे? और बन्धन किसको होता है। जो बँधा है, वही छुटकारा चाहता है। अतः बन्धन की अनुभूति और बन्धन से मुक्त होने की इच्छा इसी का नाम ‘मुमुक्षा’ है और यह जिसमें है, उसी को ‘मुमुक्षु’ कहते हैं। छुटकारे की इच्छा में बन्धन की अनुभूति है, जिसको इस बन्धन की अनुभूति है वही बन्धन से मुक्त होने की इच्छा करता है’ हम उसे चाहे मुमुक्षु कहें, चाहें जिज्ञासु या साधक। कुछ भी कहें, उसमें ‘अहं’ है और वह ‘अहं’ का मंगल चाहता है। पर प्रेम राज्य में तो अहं की चिन्ता ही नहीं है, ‘स्व’ की सर्वथा विस्मृति है। प्रेमास्पद का सुख ही जीवन है। इसी से यह ‘पंचम पुरुषार्थ’ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ना.भ.सू. 51

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