दिव्य प्रेम 10

दिव्य प्रेम


ब्रह्मविद्याहमतुला योगीन्द्रैर्या च मृग्यते।
साहं हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तपः।।
ब्रह्मानन्देन पूर्णाहं तेनानन्देन तृप्तधीः।
चराम्यस्मिन् वने घोरे ध्यायन्ती पुरुषोत्तमम्।।
तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरतिं विना।[1]

‘मैं वह अतुलनीया ब्रह्मविद्या हूँ जिसे महान योगिराज सदा ढूँढ़ा करते हैं। मैं श्रीहरि के चरणकमलों की प्राप्ति के लिये उनका ध्यान करती हुई दीर्घकाल से यहाँ तप कर रही हूँ। मैं ब्रह्मानन्द से पूर्ण हूँ, मेरी बुद्धि भी उसी ब्रह्मानन्द से परितृप्त है। परन्तु श्रीकृष्ण में मुझे रति (प्रेम) अभी नहीं मिली, इसलिये मैं अपने को सदा सूनी देखती हूँ।’

जिस अलौकिक प्रेम के लिये स्वयं ब्रह्मविद्या कल्पों तक तप करती हैं, जिस रस की तनिक-सी प्राप्ति के लिये अर्जुन साधना करके अर्जुनी बनते हैं, वह कितना उज्ज्वल, कितना दिवरू, कितना पवित्र और कितना मधुरतम है, इसे कौन बता सकता है। वे गोपरमणियाँ धन्य हैं, जिन्होंने इस प्रेम-रस का आस्वादन किया और प्रेमास्पद श्यामसुन्दर को करवाकर उनकी परम प्रीति लाभ की और जिनके सामने भगवान ने अपना पूर्ण प्रकाश किया।

हम लोगों के सामने भगवान अपने को पूर्ण रूप से प्रकट नहीं करते, ‘योगमाया’ (अपनी आत्ममाया) से ढके रखते हैं।

‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।’[2]

भगवान ने कहा- ‘मैं सबके सामने प्रकाशित क्यों नही होता, लोग मुझे पहचानते क्यों नहीं, इसीलिये कि मैं योगमाया से अपने को ढके रखता हूँ।’ परंतु प्रेमवती श्रीगोपांगनाओं के साथ यह बात नहीं है। वहाँ भगवान ‘योगमायासमावृत’ नहीं हैं, वहाँ ‘योगमायामुपाश्रित’ हैं अर्थात अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया को पृथक प्रकट करके मानो कहते हैं- ‘मैं इस समय अनावृत हूँ, बेपर्द हूँ, तुम इस नाटक की सारी व्यवस्था करो, लीला के सारे साज बनाओ।’ योगमाया काम करती हैं। भगवान तथा श्रीगोपांगनाओं की दिव्य रासलीला होती है। यहाँ कुछ भी गोपन नहीं है। भगवान की अनावृत लीला है। गोपियों का चीरहरण क्या है? वह कोई गंदी चीज थोड़े ही है। गंदी चीज होती तो दुर्वृत्तकामियों को प्रिय होती और होती अनन्त काल तक नरकों में ले जाने वाली। शुकदेव जी परीक्षित के सामने उसे कहते ही क्यों, पर यह तो सर्वथा लोकविलक्षण दिव्य भावमयी वस्तु है। मल, विक्षेप और आवरण -तीन बड़े बाधक दोष हैं जो आत्मस्वरूप तक, भगवान तक साधक को नहीं जाने देते। इनमें मल का नाश भजन से या भगवत्प्राप्ति की इच्छा से ही हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद्मपुराण
  2. गीता 7:25

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