दधि लै मथति ग्वालि गरबीली।
रुनक-झुनक कर कंकन बाजै, बाहँ डुलावति ढीली।
भरी गुमान बिलोवति ठाढ़ो, अपनैं रंग रँगीली।
छबि की उपमा कहि न परति है, या छवि की जु छबोली।
अति बिचत्र गति कहि न जाइ अव, पहिरे सारी नीली।
सूरदास प्रभु माखन माँगत नाहिं न देति हठोली।।299।।