दधि-सुत जामे नंद-दुवार।
निरखि नैन अरुझ्यौ मनमोहन, रटत देहु कर बारंबार।
दीरघ मोल कह्यौ ब्यौपारी, रहे ठगे सब कौतुक हार।
कर ऊपर लै राखि रहे हरि, देत न मुक्ता परम सुढार।
गोकुलनाथ बए जसुमति के आँगन भीतर भवन मँझार।
साखा-पत्र भए जल मेलत, फूलत-फरत न लागी बार।
जानत नहीं मरम सुर-नर-मुनि ब्रह्मादिक नहिं परत बिचार।
सूरदास प्रभु की यह लीला, ब्रज-बनिता पहिरे गुहि हार।।173।।