दधि- मटुकी हरि छीनि लई।
हार छोरि चोली-बंद तोरयौ, जोबन कैं बल ढीठि भई।।
ज्यौंही ज्यौं हम सूधैं बोलत, त्यौंहीं त्यौं अति सतरि गई।
बाद करति अबहीं रोवहुगी, बार-बार कहि दई-दई।।
अंस परायौ देहु न नीकैं मांगत हीं सब करति खई।
सूर सुनहू मैं कहत अजहुँ लौं, प्रीति करहु, जु भई सु भई।।1480।।