थीं वे विकसित-शारदीय-मल्लिका-सुमन-शोभित रजनी।
देख उन्हें कर प्रकट ’योगमाया’-’अचिन्त्य निज शक्ति’ धनी॥
षडैश्वर्य भगवान पूर्णने किया तुरत संकल्प महान।
रमण-’रसास्वादन’ स्वरूप-वितरण’का, कर सबको रस-दान॥
दीर्घकाल पर दे दर्शन निज प्यारी को जैसे प्रियतम।
रँग दे केसरसे उसका मुख-मण्डल निज कर सुखद परम॥
वैसे प्राची दिशा-सुमुखि मुख सुखद स्वकिरण-अरुणसे रंग।
उदय हुआ विधु जग-जीवोंका ताप मिटाता शीतल अंग॥
लक्ष्मी-मुख-सम शोभित नव कुङ्कुम-सम अरुण-वर्ण शशि देख।
विधुकी कोमल किरणावलिसे उद्भासित अरण्य को लेख॥
मधुर-मनोहर नेत्रवती शुचि व्रज-सुन्दरियों का मन-हर।
किया विचित्र वेणु-वादन माधवने सुललित मधुर-स्वर॥
मुरलीके मधु स्वरमें पाकर प्रियतमका रसमय आह्वान।
हुर्ईं सभी उन्मत्त, चलीं तज लज्जा, धैर्य, शील, कुल-मान॥
पति, शिशु, गृह, धन, धान्य, वस्त्र, भूषण, गौ, कर भोजन का त्याग।