तै कछु नहिं काहू कौ लीन्हौ।
प्रगट कहौ तबही मानैगी, ज्वाब निदरि मोहिं दीन्हौ।।
तब बदिहौ ऐसैहिं ह्याँ कैहै, जहँ बैठे सब बैरी।
मेरे कहै बहुत रिस पावति, संपति सबकी लै री।।
इन इक करि सब तोहिं दिखाऊँ, कहि आवहु बन जाइ।
की दीजौ, की पुनि सब लीजौ, 'सूर' स्याम पै आइ।।2433।।